Wednesday, February 4, 2009

पहाडों की छाँव मैं भी फूल हैं खिलते


पर्वत विशाल तो वन्दनीय हैं होते, जन मानस को नत्मस्तक करते |
अपने गर्भ मैं कितने ही रत्न समेट, जन-जीवन का आधार कह लाते |
हिम्पात को नित तन पर सह कर, निर्मल नदियों का सोत्र बन जाते |
बर्फीले तूफानों के थपेडों मैं डटकर, हमारे सीमाओं के प्रहरी कहलाते |
इन्ही कारणों से सब प्रभावित होकर, सपने शिखर पहुँचने के सँजोते |
रीति है पर्वतशिखर पर पताका फिराकर, जग वंदना के पात्र बनजाते ||


सागरमथ* की ऊँचाई पर बरफ जमी है, शिखर पर बस एकांत हैं पाते |
यह भी जानो तम से संघर्ष कर, पहाडों की छाँव मैं भी फूल हैं खिलते |
मुरझाये होटों की मुस्कान बनकर, कितने रिक्त आँखों मैं रंग भर देते |
असंख्य भवरों के मधु सोत्र बनकर, अभिमान के कभी शब्द ना आते |
राह मैं कितने ही कलियों को रौंद कर, शिखर की और सब होड़ लगाते |
क्या बूरा है अगर हम फूल ही बनकर, मुर्झाते हुए भी फल दे जाते ||


* - Mt. Everest

Saturday, January 17, 2009

भय का फैला प्रचंड ज्वाल है


भय का फैला प्रचंड ज्वाल है, अस्तित्व पर गया सवाल है |
रण में महारथी निष्प्राण हैं, सैनिक पर भी पड़ा यम्पाष है ||

हर तुणीर अब रिक्त हुआ है, प्रत्यंचा बिन धनुष निष्क्रिय गिरा है |
अमावस्या की रात है आई, अब नक्षत्रों में चमक कहां है |
व्याकुल होकर अरुण काल की प्रतीक्षा ही अब व्यापार हुआ है |
भय का फैला प्रचंड ज्वाल है, अस्तित्व पर आ गया सवाल है ||

पूँजीवाद को ग्रहण लगा है, राहू बनकर लोभ खडा है |
साम्यवाद की व्यथा ना पूछो, सूर्य कभी से अस्त हुआ है |
पश्चिम में रवि अस्त हुआ है, जग में व्यापक अन्धकार है |
सूर्योदय हो पूर्व दिशा से, आदि काल से नियम बना है ||

रणभेरी का नाद उठाओ, सिंह गर्जना और मिलाओ |
अन्धकार को छिन्न-भिन्न करती दूर नहीं अब ऊषा काल है |
व्यष्टि को पीछे रखते, पर समष्टि में मान बहुत है |
आज समय है पुनः विश्व में गूँज उठे वेदोक्त नारे ||

भय का फैला प्रचंड ज्वाल है, अस्तित्व पर आ गया सवाल है |
ब्रह्मास्त्र का मंत्र है फूँका, अब भय का औचित्य कहाँ है ||