Wednesday, February 4, 2009

पहाडों की छाँव मैं भी फूल हैं खिलते


पर्वत विशाल तो वन्दनीय हैं होते, जन मानस को नत्मस्तक करते |
अपने गर्भ मैं कितने ही रत्न समेट, जन-जीवन का आधार कह लाते |
हिम्पात को नित तन पर सह कर, निर्मल नदियों का सोत्र बन जाते |
बर्फीले तूफानों के थपेडों मैं डटकर, हमारे सीमाओं के प्रहरी कहलाते |
इन्ही कारणों से सब प्रभावित होकर, सपने शिखर पहुँचने के सँजोते |
रीति है पर्वतशिखर पर पताका फिराकर, जग वंदना के पात्र बनजाते ||


सागरमथ* की ऊँचाई पर बरफ जमी है, शिखर पर बस एकांत हैं पाते |
यह भी जानो तम से संघर्ष कर, पहाडों की छाँव मैं भी फूल हैं खिलते |
मुरझाये होटों की मुस्कान बनकर, कितने रिक्त आँखों मैं रंग भर देते |
असंख्य भवरों के मधु सोत्र बनकर, अभिमान के कभी शब्द ना आते |
राह मैं कितने ही कलियों को रौंद कर, शिखर की और सब होड़ लगाते |
क्या बूरा है अगर हम फूल ही बनकर, मुर्झाते हुए भी फल दे जाते ||


* - Mt. Everest