Saturday, January 17, 2009

भय का फैला प्रचंड ज्वाल है


भय का फैला प्रचंड ज्वाल है, अस्तित्व पर गया सवाल है |
रण में महारथी निष्प्राण हैं, सैनिक पर भी पड़ा यम्पाष है ||

हर तुणीर अब रिक्त हुआ है, प्रत्यंचा बिन धनुष निष्क्रिय गिरा है |
अमावस्या की रात है आई, अब नक्षत्रों में चमक कहां है |
व्याकुल होकर अरुण काल की प्रतीक्षा ही अब व्यापार हुआ है |
भय का फैला प्रचंड ज्वाल है, अस्तित्व पर आ गया सवाल है ||

पूँजीवाद को ग्रहण लगा है, राहू बनकर लोभ खडा है |
साम्यवाद की व्यथा ना पूछो, सूर्य कभी से अस्त हुआ है |
पश्चिम में रवि अस्त हुआ है, जग में व्यापक अन्धकार है |
सूर्योदय हो पूर्व दिशा से, आदि काल से नियम बना है ||

रणभेरी का नाद उठाओ, सिंह गर्जना और मिलाओ |
अन्धकार को छिन्न-भिन्न करती दूर नहीं अब ऊषा काल है |
व्यष्टि को पीछे रखते, पर समष्टि में मान बहुत है |
आज समय है पुनः विश्व में गूँज उठे वेदोक्त नारे ||

भय का फैला प्रचंड ज्वाल है, अस्तित्व पर आ गया सवाल है |
ब्रह्मास्त्र का मंत्र है फूँका, अब भय का औचित्य कहाँ है ||

5 comments:

Kannan said...

This poem was prompted by the current Global economic crisis and the resulting insecurity that people like me, employed in MNCs, feel. It was written in the last week of Nov, 2008 but I managed to post it only today.

Sachin Jain said...

पश्चिम में रवि अस्त हुआ है, जग में व्यापक अन्धकार है |
सूर्योदय हो पूर्व दिशा से, आदि काल से नियम बना है ||

Very true.............I like these line most

Udan Tashtari said...

बहुत सुन्दर.

Unknown said...

badhiyan hai

Unknown said...

Know the truth about US

http://knowthetruths.blogspot.com/2009/09/twenty-minutes-with-president.html