Wednesday, February 11, 2009
Wednesday, February 4, 2009
पहाडों की छाँव मैं भी फूल हैं खिलते
पर्वत विशाल तो वन्दनीय हैं होते, जन मानस को नत्मस्तक करते |
अपने गर्भ मैं कितने ही रत्न समेट, जन-जीवन का आधार कह लाते |
हिम्पात को नित तन पर सह कर, निर्मल नदियों का सोत्र बन जाते |
बर्फीले तूफानों के थपेडों मैं डटकर, हमारे सीमाओं के प्रहरी कहलाते |
इन्ही कारणों से सब प्रभावित होकर, सपने शिखर पहुँचने के सँजोते |
रीति है पर्वतशिखर पर पताका फिराकर, जग वंदना के पात्र बनजाते ||
सागरमथ* की ऊँचाई पर बरफ जमी है, शिखर पर बस एकांत हैं पाते |
यह भी जानो तम से संघर्ष कर, पहाडों की छाँव मैं भी फूल हैं खिलते |
मुरझाये होटों की मुस्कान बनकर, कितने रिक्त आँखों मैं रंग भर देते |
असंख्य भवरों के मधु सोत्र बनकर, अभिमान के कभी शब्द ना आते |
राह मैं कितने ही कलियों को रौंद कर, शिखर की और सब होड़ लगाते |
क्या बूरा है अगर हम फूल ही बनकर, मुर्झाते हुए भी फल दे जाते ||
* - Mt. Everest
Saturday, January 17, 2009
भय का फैला प्रचंड ज्वाल है
रण में महारथी निष्प्राण हैं, सैनिक पर भी पड़ा यम्पाष है ||
हर तुणीर अब रिक्त हुआ है, प्रत्यंचा बिन धनुष निष्क्रिय गिरा है |
व्याकुल होकर अरुण काल की प्रतीक्षा ही अब व्यापार हुआ है |
भय का फैला प्रचंड ज्वाल है, अस्तित्व पर आ गया सवाल है ||
साम्यवाद की व्यथा ना पूछो, सूर्य कभी से अस्त हुआ है |
सूर्योदय हो पूर्व दिशा से, आदि काल से नियम बना है ||
अन्धकार को छिन्न-भिन्न करती दूर नहीं अब ऊषा काल है |
आज समय है पुनः विश्व में गूँज उठे वेदोक्त नारे ||
Tuesday, November 18, 2008
Monday, November 17, 2008
धुंद मैं छिपा दिन्कर
आज दिल्ली के जाडे मैं धुंद छा गयी ||
क्या कल तक दिख्ता रवि मेरा ब्रह्म था?
या बेमौसम पतझड़ मेरे जीवन मैं आगया?
इन प्रश्नों का उत्तर देसका तो जीवन के परीक्षा स्थल मैं दाखिला मिले
यही जीवन का अभी तक का अर्थ निकला |
और कितने परीक्षाएं हैं यह मालूम नहीं ना ही जाने की इच्छा होती है|
बस किसी तरह आज मन मैं खटकते प्रश्नों का उत्तर मिले येही है अभिलाषा बनी||