Monday, November 17, 2008

धुंद मैं छिपा दिन्कर

कल तक सूरज प्राची मैं साफ़ दिखाई पड़ता था |
आज दिल्ली के जाडे मैं धुंद छा गयी ||
क्या कल तक दिख्ता रवि मेरा ब्रह्म था?
या बेमौसम पतझड़ मेरे जीवन मैं आगया?
इन प्रश्नों का उत्तर देसका तो जीवन के परीक्षा स्थल मैं दाखिला मिले
यही जीवन का अभी तक का अर्थ निकला |
और कितने परीक्षाएं हैं यह मालूम नहीं ना ही जाने की इच्छा होती है|
बस किसी तरह आज मन मैं खटकते प्रश्नों का उत्तर मिले येही है अभिलाषा बनी||

2 comments:

Sachin Jain said...

Good one,

Main humaesha hi kahta hoon you should maintain a diary for your writing :) you will have good collection of writing better than me :)

aapki iss kavita par mujhe kuch apni panktiya yaad aa gai......main itni tough hindi to nahi likh sakta but bhaav kuch aisa hi hai,


जिंदगी के भवंर में हम कितना फंस गए हैं,
ना रहना चाहें इसमे, ना निकलना चाहें इससे,
भवंर में तो सहने पड़े जीवन के थपेडे हमे,
पर निकलने में तो हैं मजबोरियों का समंदर,
जिम्मेदारियां खड़ी है घड़ियाल की तरह,
हमारी बेबसी का तो ये है आलम,
पहचान मिट रही है हमारे वजूद की यहाँ,
फिर भी हमे पसंद है रहना भवंर में,
क्योंकि निकलकर तो डर है डूब जाने का,
भवंर में कम से कम जीवन तो है हमारे पास,
ना चाहें हम कुछ भी अलग जीवन से,
बने हुए रास्तों पर ही चलना चाहें हम,
पर शायद नही सोचते हम कभी,
कुछ अलग प्रयास ही बनते हिं एक वजूद को,
निकलकर अगर डूब भी गए तो क्या,
जब एक दिन डूबना ही है हम सब को ,
वजूद और पहचान तो रह जाएगी हमारी यहाँ ,
कम से कम भंवर से तो निकलेंगे हम ,
सिर्फ़ धोएँगे नही इस जीवन नैया को ,
वास्तव में जिएंगे हम अपने इस जीवन को वास्तव में जिएंगे

Online link http://sachinjain7882.blogspot.com/2008/08/blog-post_29.html for comments :)

I must say that keep writing and keep that spirit alive.........................

Kannan said...

There is a reason why I specifically mention Delhi when i talk about winter... there is a symbolic value attached to it... difficult to put it in words...